Sunday, March 27, 2016

‘ विरोधरस ‘---10. || विरोधरस के सात्विक अनुभाव || +रमेशराज




‘ विरोधरस ‘---10.



|| विरोधरस के सात्विक अनुभाव || 

+रमेशराज
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भाव-दशा में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होने वाले कायिक परिवर्तन सात्विक अनुभावकहलाते हैं। किसी भी सुन्दर स्त्री या अबला को देखकर उसे पाने या दबोचने के लिए दुष्टजनों की भुजाएं फड़कने लगती हैं। जीभ लार टपकाने लगती है। ये खूबसूरत चीजों पर केवल अपनी कुदृष्टि ही नहीं डालते, उन्हें कुचलने या मसलने को भी बेचैन रहते हैं-
बुरी निगाहें डाल रहा है, नारी पर लक्ष्मण लिखने दो।
-दर्शन बेज़ार, एक प्रहारःलगातार, [तेवरी-संग्रह ] पृ.46
मंच पर सम्मानित होने वाले नेताजी रोमांचित और गदगद हो जाते हैं-
जब कोई थैली पाते हैं जनसेवकजी
कितने गदगद हो जाते हैं जनसेवकजी।
-रमेशराज, इतिहास घायल हैं,[तेवरी-संग्रह ] पृ. 44
अपने ही आनंद में डूबे रहने वाले अत्याचारी वर्ग की एक विशेषता यह होती है कि यह वर्ग दूसरों की त्रासद परिस्थितियों को देखकर हँसने, मुस्कराने के साथ-साथ ठहाके लगाने लगता है। आतंकवादियों को लाशों के ढेर देखकर जिस आनंद की प्राप्ति होती है, वह किसी से छुपा नहीं है। ऐसे लोग चीखते वातावरण के बीच अट्टहास करते हुए अपनी प्रसन्नता का इजहार करते हैं-
फातिमा की चीख पर करते दरिन्दे अट्टहास, आज मरियम बन्द कमरे में पड़ी चिल्ला रही।
-दर्शन बेजारः एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ. 41

सच्चाई ताने सहती,
झूठ सभी का यार हुआ।
-राजेंद्र वर्मा, सूर्य का उजाला, समीक्षा अंक, पृ.2
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630       

‘ विरोधरस ‘---11. || विरोध-रस का आलंबनगत संचारी भाव || +रमेशराज






‘ विरोधरस ‘---11.


|| विरोध-रस का आलंबनगत संचारी भाव ||

+रमेशराज
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विरोध की रस-प्रक्रिया को समझने के लिये आवश्यक यह है कि सर्वप्रथम आलंबन के उन भावों को समझा जाये जो आश्रय के मन में  रसोद्बोधन का आधार बनते हैं। विरोध-रस के आलंबन चूंकि धूर्त्त , मक्कार, अत्याचारी, बर्बर, आतातायी और हर प्रकार की अनैतिकता के व्यवसायी होते हैं और इनकी काली करतूतें ही आश्रय अर्थात् आमजन को एक दुखानुभूति के साथ उद्दीप्त करती हैं, अतः इनके भीतर छुपे हुए हर कुटिल भाव का आकलन भी जरूरी है। चतुर और शोषक वर्ग के मन में निम्न भाव हमेशा वास करते हैं-
असामाजिक और अवांछनीय तत्त्वों में पाये जाने वाला रस-पदार्थ मद है। मद में चूर लोगों का मकसद दूसरे प्राणियों को शारीरिक और मानसिक हानि पहुंचाना होता है। साथ ही यह बताना होता है कि हम ही महान है। इस जहां के बाकी जितने इन्सान हैं, वे उन्हें अपने पैरों की जूती समझकर अपनी तूती की आवाज को बुलंद करना चाहते हैं।
मदांध लोग सभ्य समाज के बीच खंजर उठाये, बाहें चढ़ाये, अहंकार और गर्व के साथ घूमते हैं-
खून के धब्बे न अब तक सूख पाये
आ गये फिर लोग लो खंजर उठाये।
-दर्शन बेजार, देश खण्डित हो न जाए [तेवरी-संग्रह ] पृ. 41

' मद '  
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मदांध लोग अपनी सत्ता के नशे में किसी असहाय या गरीब की आह-कराह को नहीं सुनते-
लाश के ऊपर पर टिका जिसका तखत
क्या सुनेगी आह ऐसी सल्तनत।
-दर्शन बेजार, देश खण्डित हो न जाए [तेवरी-संग्रह ] पृ.52
    मद में चूर लोग दुराचार की पराकष्ठा तक जाते हैं। असहाय द्रौपदी को अपनी जांघ पर बिठाते हैं-
सड़क पर असहाय पांडव देखते
हरण होता द्रौपदी का चीर है।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ. 21

उग्रता 
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गलत आचरण का वरण करने वाले लोगों के मन से शांति का हरण हो जाता है। ऐसे लोग अशांत चित्त वाले ही नहीं होते, इनके मन में आक्रामकता और उग्रता भरी होती है जो इन्हें सदैव हिंसक कार्य के लिए उकसाती है-
जो हुकूमत कर रहे हैं ताकतों से, जुड़ गये जुल्मोसितम की आदतों से।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ. 49
उग्र लोगों की अगर कोई विचारधारा होती है तो वह है-आतंकवाद। भयावह आक्रामकता से भरे इनके इरादे जनता को गाजर-मूली की तरह काटते हैं-
जान का दुश्मन बना क्यों भिंडरा,
संत पर हैवानियत आसीन क्यों?
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.59

स्वार्थ 
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    विरोधरस के आलंबन बने स्वार्थी लोगों के मन सदैव सद्भावना के दर्पन चटकाते हैं। ये जिस किसी के दिल में जगह बनाते हैं, उसी के साथ विश्वासघात करते हैं। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये ये कहीं सूदखोर महाजन हैं तो कहीं जहरखुरानी करते राहजन हैं। जनता को ठगने के लिये कहीं ये साधु के रूप में उपस्थित हैं तो कहीं घोर आदर्शवाद को दर्शाते इनके छल भरे इनके आचरण हैं-
जिस हवेली को रियाया टेकती मत्था रही, वह हवेली जिस्म के व्यापार का अड्डा रही।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ. 41
अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये ऐसे लोग ईमानदारी का मर्सिया पढ़ते हैं तो दुराचरण को कसीदे की तरह गाते हैं। अभिनंदन और धन के लिये ऐसे लोगों के मुंह से दुराचारियों की तारीफ में फूल झड़ते हैं। इस तरह ये लोग अनीति को आधार बनाकर प्रगति की सीढि़यां चढ़ते हैं-
पुरस्कार हित बिकी कलम अब क्या होगा?
भाटों की है जेब गरम अब क्या होगा?
प्रेमचंद’, ‘वंकिम’, ‘कबीरके बेटों ने,
बेच दिया ईमान-धरम अब क्या होगा?
-दर्शन बेजार, एक प्रहारःलगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ. 39
स्वार्थी लोगों की अतृप्त इच्छाएं कभी तृप्त नहीं होतीं। ऐसे लोग अति महत्वाकांक्षी होते हैं। ये लोग छल-कपट का व्यापार करते हैं। ये दूसरों के हाथ के निवाले छीनते हैं।  औरों के लिये विषैला वातावरण तैयार करते हैं। इनके घिनौने व्यापार की मार से आज न धरती अछूती है, न आसमान-
जमीं पै रहने वालों की हवस आकाश तक पहुंची,
धरा की बात छोड़ो ये गगन तक बेच डालेंगे।
-सुरेश त्रस्त, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.30

अंगरेजी में कर हिंदी की ऐसी-तैसी,
अपनी बड़ी दुकान अजाने, धत्त तेरे की।
-डॉ.राजेंद्र मिलन, सूर्य का उजाला, समीक्षा अंक, पृ.2

 वितर्क या कुतर्क
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अपनी बात या विचारधारा को मनवाने या स्थापित करने के लिये धूर्त्त और मक्कार लोग कुतर्क या वितर्क का सहारा लेते हैं। हर कथित धर्म का संचालक अपने अधर्म को स्थापित करने के लिये सत्य के नाम पर तरह-तरह के कुतर्क गढ़ता है। असत्य को सत्य के रूप में स्थापित करने वाले लोगों का, जो साक्षात प्रमाणित है, उसे न मानकर, जो छद्म है, झूठ है, छल है, की स्थापना करना ही उद्देश्य होता है -
एक रेपअंकित है जिसकी हर धड़कन पर, तुम उसको-
उल्फत का सैलाब कह रहे, जाने तुम कैसे शायर हो?
-विजयपाल सिंह, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.22
वितर्क या कुतर्क के सहारे अफवाहों को जन-जन के बीच फैलाना और उन्हें दंगों के द्वारा वोटके रूप में भुनाना हमारे देश के नेताओं को भलीभांति आता है। अफवाहों के बीच हिंदू और मुसलमान में तब्दील हुए लोग कुतर्क या वितर्क से एक ऐसा नर्क पैदा करते हैं, जिसके भीतर निर्दोष लोग चाकुओं, गोलियों से घायल होते हैं, मरते हैं-
बड़ी विषैली हवा चली है शहरों में,
घिरे लोग सब अफवाहों की लहरों में ,
सड़कों पर कस दिया शिकंजा कर्फ्यू ने,
कैद हुए हम संगीनों के पहरों में।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ. 28
यह भी धर्मिक उन्मादियों के वितर्क का ही परिणाम है-
लोग हैवान हुए दंगों में, हिंदू-मुसलमान हुए दंगों में।
धर्म चाकू-सा पड़ा लोगों पर, कत्ल इन्सान हुए दंगों में।
-योगेन्द्र शर्मा, कबीर जिंदा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 67
वितर्क एक ऐसा भाव है जिसके द्वारा वकील एक निर्दोष को फांसी पर चढ़वा देता है। थाने में आये असहाय, निर्बल और निर्धन से धन न आता देखकर हमारे देश की पुलिस सबसे अधिक वितर्क का सहारा लेती है।
एक नेता अपनी सत्ता को कायम रखने या सत्ता का मजा चखने के लिये मंच पर भाषण देते समय केवल वितर्क के बलबूते पूरे जन समुदाय को मंत्रमुग्ध कर देता है-
भारत में जन-जन को हिंदी अपनानी है’,
अंगरेजी में समझाते हैं जनसेवक जी।
-रमेशराज, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 44
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630       

‘ विरोधरस ‘---12.|| विरोध-रस के आश्रयगत संचारी भाव || +रमेशराज






‘ विरोधरस ‘---12.


|| विरोध-रस के आश्रयगत संचारी भाव ||

+रमेशराज
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विरोध-रस के आश्रय अर्थात् जिनमें रस की निष्पत्ति होती है, समाज के वे दबे-कुचले-सताये-कमजोर और असहाय लोग होते हैं जो यथार्थवादी काव्य या उसके एक रूप तेवरी के सृजन का आधार बनते हैं। तेवरी इन मानसिक और शारीरिक रूप से पीडि़त लोगों के घावों पर मरहम लगाती है, उन्हें क्रांति के लिए उकसाती है। तेवरी-काव्य के ये आश्रय, आलंबन अर्थात् स्वार्थी, शोषक लोगों के अत्याचारों के शिकार सीधे-सच्चे व मेहनतकश लोग होते हैं। इनके मन में स्थायी भाव आक्रोश तीक्ष्ण अम्ल-सा उपस्थित रहता है और अनेक संचारी भाव, घाव के समान पीड़ादायी बन जाते हैं, जो निम्न प्रकार पहचाने जा सकते हैं-
[ रमेशराज की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ' विरोध-रस ' से ]

 विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' दुःख '  
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विरोध-रस के आश्रयों में दुःख का समावेश बार-बार होता है। कहीं उसे भूखे बच्चों की भूख ने दुःखी कर रखा होता है तो कहीं उनके मन में साहूकार का कर्ज न लौटा पाने के कारण पनप रही चिंता होती है। कहीं नौकरी नहीं मिल पाने के कारण तनाव है तो कहीं  जमीन-जायदाद को जबरन हड़पने की व्यथा-
जो भी मुखड़े दिखाई देते हैं, उखड़े-उखड़े दिखायी देते हैं।
-गिरिमोहन गुरु, ‘कबीर-जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 19
लोगों को दुःख के कारण जैसे एक दिन में कई बार मरने की आदत-सी हो गयी होती है---
हर दिन में अब कई मर्तबा,
मरने की आदत है लोगो!  
-शिवकुमार थदानी, ‘कबीर जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 43

हर चीज का अभाव कोई देखता नहीं,
इस दर्द का बसाव कोई देखता नहीं।
-ज्ञानेंद्र साज़, अभी जुबां कटी नहीं, [तेवरी-संग्रह ] पृ. 44

विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' दैन्य '
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वांछित स्वतंत्र और सुखद जीवन को जब स्वार्थी या अधम व्यक्ति पराधीन बना देते हैं तो पराधीन व्यक्ति की हालत, दीनता व असहायता में बदल जाती है-
शक्ति पराजित हो जाती है मात्र समय से,
सिंह खड़ा है बन्दी-बेबस चिडि़याघर में।
-राजेश महरोत्रा, कबीर जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 15

टोपी जिसकी रही उछलती-टुकड़े जिसे नसीब नहीं,
दुनिया उड़ा रही है हाँसी, चुप बैठा है गंगाराम।
-जगदीश श्रीवास्तव, कबीर जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 41
अशांति, यातना, शोषण, उत्पीड़न के शिकार व्यक्ति का शांत और प्रसन्नचित्त, अशांति की भाव-दशा ग्रहण कर लेता है-
मेरे मेहमान ही घर आ के मुझे लूट गये,
मैं उन्हें ढूंढता फिरता हूं निगहतर लेकर।
-दर्शन बेज़ार, देश खण्डित हो न जाए [तेवरी-संग्रह ] पृ. 29

हर किसी में तिलमिलाहट-सी है एक,
दर्द कुछ हद से घना है आजकल।
-सुरेशत्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 38

 विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' याचना  '
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खल, हर किसी को पल-पल प्रताडि़त, अपमानित करते हैं। सज्जन उन्हें ऐसा न करने के लिये दया की भीख मांगते हैं। वे याचक-भाव के साथ हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं-
याचक भाव लिये मुख पर-आंखों में आंसू का दरिया,
मुखियाजी का जैसे होकर दास खड़ा है होरीराम।
-सुरेशत्रस्त, ‘कबीर जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ.51

विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' शंका '
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अनगिनत उलझनों, समस्याओं से घिरे आदमी के जीवन में भविष्य को लेकर शंकाओं का ज्वार उठना स्वाभाविक है। ठीक इसी प्रकार साम्प्रदायिक वातावरण में कर्फ्यू घोषित हो जाने के बाद दो जून की रोटी की जुगाड़ में घर से बाहर गये निर्धन के परिवार को उसके अनिष्ट की शंका सतायेगी ही। साहूकार के कर्ज को समय पर न लौटा पाने वाले निर्धन का मन आने वाले बुरे दिनों से आशंकित तो रहेगा ही।

विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' याचना  '
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जनतांत्रिक तरीके से चुनी गयी एक घोषित जनवादी सरकार जब अजनवादी कार्य करने लगे तो शंकित होना स्वाभाविक हैं-
पूंजीवाद प्रगति पर यारो,
ये कैसा जनवाद देश में।
-गिरिमोहन गुरु, कबीर जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 17


 विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' विषाद '
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अपनी बर्बादी का मातम करता हुआ व्यक्ति जब यह देखता है कि उसके अपनों ने ही उसे लूटा है, उसके रंगीन सपनों को कमरतोड़ महंगाई ने कूटा है, वह इस व्यवस्था के लुटेरों के चुंगल से जैसे-तैसे छूटा है तो उसके मन में एक गहरा विषाद छा जाता है-
देश हुआ बरबाद आजकल,
पनपा घोर विषाद आजकल।
चोर-सिपाही भाई-भाई,
कौन सुने फरियाद आजकल।
 -अनिल कुमार अनल’, कबीर जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ.-64


विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' संताप '
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ताप के समान भाव लिये शोषित और उत्पीडि़त व्यक्ति की दशा ऐसी होती है, जिसमें वह तड़पता-छटपटाता और तिलमिलाता रहता है-
अब तो प्रतिपल घात है बाबा,
दर्दों की सौगात है बाबा।
-सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ.37

हर खुशी अब आदमी के गाल पर,
एक झुर्री-सी जड़ी है दोस्तो!
-ज्ञानेंद्र साज़, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 46


 विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' आवेग '
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अत्याचार से पीडि़त व्यक्ति भले ही असहाय होकर एकांत में बैठा हो, लेकिन उसका मन अपमान-तिरस्कार-मार-बलात्कार से उत्पन्न आघात के कारण असह्य वेदना को प्राप्त होता है। ऐसे व्यक्ति अपने शत्रु के साथ मन के स्तर पर युद्ध लड़ते हैं। उनका मन शत्रु के प्रति सदैव उग्र रहता है और बार-बार यही कहता है-
मैं डायनमाइट हूं ये भी,
इक दिन दूंगा दिखा लेखनी।
टूटे बत्तीसी दर्दों की,
ऐसे चांटे जमा लेखनी।
-रमेशराज, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ.51,53


तुम पहने हो बूट मिलन के ठेंगे से,
तुम पर महंगा सूट मिलन के ठेंगे से।
-डॉ. राजेंद्र मिलन, सूर्य का उजाला, वर्ष-16, अंक-16, पृ.2

हमसे सहन नहीं होते हैं अब सुन लो,
बहुत सहे आघात, महंगाई रोको।
-ज्ञानेंद्र साज़, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 47

 विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' भय '
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विरोध-रस के आलंबन, आश्रयों को आतंकित और भयग्रस्त करते हैं। किंतु असहाय और निर्बलों के भीतर पनपा भय, भयानक-रस का परिचय न देकर उस वक्त विरोध-रस की लय बन जाता है, जब इस सच्चाई तक आता है-
रहनुमा सैयाद होते जा रहे हैं देश में,
भेडि़ए आबाद होते जा रहे हैं देश में।
आदमी सहता रहा जुल्मो-सितम अंचलमगर,
जिस्म अब फौलाद होते जा रहे हैं देश में।
-अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ.20


विरोध-रस का आश्रयगत संचारी भाव-- ' साहस '
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यह तय है कि स्थायी भाव आक्रोश, दमन, शोषण, उत्पीड़न आदि से उत्पन्न होता है, अतः दमित, शोषित, पीडि़त व्यक्ति का दुःख, शोक, भय, दैन्य, अशांति, आत्म-प्रलाप, संताप, शंका, याचना, क्रंदन आदि से भर उठना स्वाभाविक है।
पीडि़त व्यक्ति में  दुःख, शोक, भय, दैन्य, अशांति, आत्म-प्रलाप, संताप, शंका, याचना, क्रंदन आदि की स्थिति कुछ समय को ही अपना अस्तित्व रखती है। तत्पश्चात एक अग्नि-लय बन जाती है, जो पीडि़त व्यक्ति को एक नयी क्रांति के लिए उकसाती है।
आक्रोशित व्यक्ति के याचना-भरे स्वर मर जाते हैं। उनकी जगह ऐसी भाषा जन्म लेती है, जिनके हर शब्द में शत्रु वर्ग के विरुद्ध विस्फोटक भरा होता है। वाणी चाकू की धार का काम करती है। शत्रु वर्ग के कलेजे में छुरी की तरह उतरती है-
देश-भर में अब महाभारत लिखो,
आदमी को क्रांति के कुछ खत लिखो।
-अनिल कुमार अनल, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 12

कसम है तुझे अपने देश की मांओं की,
संविधान बेचने वालों से वास्ता न रखना।
-अशोक अश्रु, सूर्य का उजाला, समीक्षा अंक, पृ.2
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630       

‘ विरोधरस ‘---13.|| विरोध-रस के आश्रयों के अनुभाव || +रमेशराज






‘ विरोधरस ‘---13.


|| विरोध-रस के आश्रयों के अनुभाव ||

+रमेशराज
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हिंदी काव्य की नूतन विधा तेवरी के पात्र जिनमें विरोध-रस की निष्पत्ति होती है, ऐसे पात्र हैं, जो इसके आलंबनों के दमन, उत्पीड़न के तरह-तरह से शिकार हैं। एक तरफ यदि इनकी आंखों में अत्याचारियों का खौफ है तो दूसरी ओर अत्याचारियों के प्रति अंगार भी हैं। ये कभी मुरझाये हुए हैं तो कभी झल्लाए-तमतमाए और तिलमिलाए हुए।
विरोध-रस के आश्रयों के  भीतर स्थायी भाव आक्रोशपूरे जोश के साथ शत्रु वर्ग को अपशब्दों में कोस रहा होता है तो कहीं ललकार रहा होता है तो कहीं खलों के निर्मूल विनाश की कामनाएं कर रहा होता है।
तेवरी में विरोध-रस के आश्रयों के अनुभाव उस घाव की मार्मिक कथाएं हैं, जिनमें आहें हैं-कराहें हैं संताप क्षोभ विषाद आवेश-आवेग और उन्माद से भरी संवेदनाएं हैं-
मौन साधे बैठा है होंठ-होंठ और अब,
आंख-आंख द्रौपदी है, तेवरी की बात कर।
-अरुण लहरी, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 26
तेवरी काव्य में वर्णित विरोध-रस के आश्रयों के अनुभावों का विश्लेषण करें तो निम्न प्रकार के हैं-

अपशब्द बोलना-
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जब कोई किसी को सताये, किसी की मजबूरी पर ठहाके लगाए, अपमानित करे, अहंकारपूर्ण कटूक्तियों से कोमल मन में विष भरे तो पीडि़त व्यक्ति क्या करेगा? वह गालियां देगा-
सब ही आदमखोर यहां हैं,
डाकू, तस्कर, चोर यहां हैं।
-कुमार मणि, कबीर जिंदा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 37

खुदगर्जों, मक्कारों को कुर्सी मिलती ,
कैसा चयन हुआ है मेरे देश में ।
-ज्ञानेंद्र साज़, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 48
सताया गया व्यक्ति इस घिनौने सिस्टम के गम को यूं व्यक्त करेगा----
देश यहां के सम्राटों ने लूट लिया,
सत्ताधारी कुछ भाटों ने लूट दिया।
-अरुण लहरी, कबीर जिंदा है [तेवरी-संग्रह ] पृ65

लूट लिया करते थे पहले धन-दौलत,
इज्जत भी अब करें कसाई टुकड़े-टुकड़े।
-राजेश मेहरोत्रा, कबीर जिंदा है [तेवरी-संग्रह ] पृ.4

तड़पना-
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नदी किनारे तड़प रही मछली बेचारी,
पानी से भर मरुथल देंगे बातें झूठी।
-राजेश मेहरोत्रा, कबीर जिंदा है [तेवरी-संग्रह ] पृ.9

मुट्ठियों को भींचना-
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मुट्ठियों को भींचता वो स्वप्न में
आंख खुलने पर मगर लाचार है।
-गिरिमोहन गुरु, कबीर जिंदा है [तेवरी-संग्रह ] पृ.23

भयग्रस्त हो जाना-
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रातों को तू ख्वाब में चिल्लायेगा साँप,
लोगों के व्यक्तित्व में चंदन-वन मत खोज।
-रमेशराज, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.43

मति फिर जाना---
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तर्क की उम्मीद फिर क्या कीजिए,
आदमी जब राशिफल होता गया।
-योगेंद्र शर्मा, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.39

आंखों से रंगीन सपनों का मर जाना-
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दर्दों को काटेंगे सारी उम्र हम,
बो गया है वो फसल वातावरण।
मर गये आंखों के सपने जब कभी,
हो गया तब-तब तरल वातावरण।
-गिरीश गौरव, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.36

सिसकियां भरना-
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जो विदूषक मंच पर हंसता रहा,
सिसकियां भरता वही नेपथ्य में।
-दर्शन बेजार, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.18

चट्टान जैसा सख्त हो जाना-
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फूल ने जब बात की आक्रोश की,
पांखुरी चट्टान जैसी हो गयी।
-गजेंद्र बेबस, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.16

सुबकना-
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सिर्फ सुबकती रहती हैं रूहें जिसमें,
देखा है वो आलम भी अब तो हमने।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ. 60

थर-थर कांपना-
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कांपता थर-थर यहां हर आदमी,
घूमता कातिल यहां स्वाधीन क्यों?
-दर्शन बेजार, एक प्रहारःलगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.46

विक्षिप्त-सा हो जाना-
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गांव-गांव विक्षिप्त निरालाघूम रहा,
दलबदलू जा कलम मिली दरबारों से।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.54

आग-सा दहक उठना-
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आप अब बेजारसे मिल लें जरा,
आग से कुछ रू--रू हो जाएंगे।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.48

कृशकाय हो जाना-
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भूख की ऐसी फसल घर-घर उगी,
पेट को छूने लगी लो पसलियां।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.47

कलेजा मुंह तक आना---
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साथियो! आकाश में कैसा अँधेरा छा गया,
वो उठी काली घटा, मुंह को कलेजा आ गया।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.45

आशंका व्यक्त करना-
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पुरस्कार-हित बिकी कलम, अब क्या होगा?
भाटों की है जेब गरम, अब क्या होगा?
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.39

त्रासद परिस्थितियों की चर्चा करना-
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किस कदर हिंसक हुआ है आदमी,
लोग आये हैं बताने गांव के।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.37

कैसा चलन हुआ है मेरे देश का,
गौरव रेहन हुआ है मेरे देश का।
-ज्ञानेंद्र साज़, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 48

फिर यहां जयचंदपैदा हो गये,
मीरजाफरजिन पै शैदा हो गये।
मंदिरों की सभ्यता तो देखिए,
संत भी गुण्डे या दादा हो गये।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.35

निरंतर चिंताग्रस्त रहना---
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जिंदगी दुश्वार है अब रामजी,
हर कोई लाचार है अब रामजी!
-गिरीश गौरव, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.34
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630