काव्य का आदिरस : विरोध-रस
+रमेशराज
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काव्य में ‘विरोध’
की उपस्थित आदिकालिक ही नहीं,
सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। विरोध शारीरिक व
मानसिक हिंसा के बोध से उत्पन्न होता है। परम्परा या लीक से हटकर कुछ भी न सोचने
वाले आचार्य इस बात से असहमत हो सकते हैं, किन्तु
मेरा मानना है कि काव्य में रस के रूप में ‘विरोध’
आदिकाव्य ‘रामायण’
के प्रथम श्लोक की प्रथम पंक्ति-
("मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्" ) के
माध्यम से आदिरस होने का गौरव प्राप्त करता है। काममग्न क्रोंचयुगल में से एक का
वध करने वाले निषाद के प्रति श्राप के रूप में व्यक्त अनुभाव कि ‘हे
निषाद तुझे जीवन भर प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी’, में
‘विरोध’
पूरी तरह घनीभूत है।
‘विरोध’
का स्थायी भाव ‘आक्रोश’
है। ‘आक्रोश’
मनुष्य के मन की वह संवेगात्मक अवस्था है,
जिसका रूप प्रतिवेदनात्मक होता है। प्रतिवेदना
अर्थात् किसी भी घटना से असहमति जिसका प्रधान लक्षण है। ‘आक्रोश’
की स्थिति में मनुष्य अपने को बलशाली के समक्ष
दुर्बल और असहाय महसूस करता है। अत्याचारी का कुछ न बिगाड़ पाने की विवशता आक्रोश
को जन्म देती है। अपमान, उपहास,
तिरस्कार की मार से तिलमिलाता मनुष्य भीतर ही भीतर
घुटता है, क्षुब्ध
होता है। मन ही मन उस व्यक्ति को कोसता है, श्राप
देता है, जिसने उसके मन को चोट
पहुंचायी होती है।
आक्रोश
क्रोध का प्रर्याय नहीं । क्रोधित मनुष्य सकारण या अकारण किसी भी व्यक्ति पर
आक्रमण करने को आतुर होता है, जबकि
आक्रोशित मनुष्य, आक्रोश
की स्थिति में ऐसे व्यक्ति के विनाश की केवल कामना करता है,
जिसने उसे सताया हो।
जीवन में क्रोध के अवसर कम होते हैं,
जबकि मनुष्य आपे से बाहर होकर किसी को मारता-पीटता
है या तोड़फोड़ करता है। किसी से अपमानित या प्रताडि़त होकर आक्रोश के संताप को
व्यक्ति स्थायी रूप से दीर्घकाल तक झेल सकता है। कौरववंशी दुर्योधन-दुस्शासन से
अमानित पांडवों की पत्नी द्रौपदी इसका सटीक उदाहरण मानी जा सकती है।
‘भगवान
इसके वंश का नाश हो जाये’, ‘कम्बख्त
बिजली वाले कहां सो गये हैं जो बिजली नहीं दे रहे’, ‘ये
कमीना जाने कब मरेगा’, ‘ये
निकम्मी सरकार कब बदलेगी’ जैसे
अनुभावों से स्पष्ट पता लग जाता है कि मनुष्य की मनःस्थिति आक्रोश से भरी हुई है।
आक्रोश एक सुविचारित प्रक्रिया है, जबकि
क्रोध में विवेक-शून्यता समावेशित होती है।
क्रोध का
प्रकटीकरण वाह्य होता है जबकि आक्रोश का समस्त द्वंद्व मानसिक रहता है। किसी
व्यक्ति को मार डालना क्रोध के अन्तर्गत आता हैं जबकि किसी के मरने की कामना करना
आक्रोश है।
क्रोध
में तलवार, चाकू,
बन्दूक, लाठी,
घूंसे का इस्तेमाल शत्रु से अपने को अधिक ताकतवर मानकर होता है,
जबकि आक्रोश में कुछ न कर पाने की विवशता के रूप
में क्षुब्धता, तिलमिलाहट,
बौखलाहट, कोसने
की क्रिया, मन ही मन
गाली देने की प्रक्रिया आदि से लेकर अन्त तक बनी रहती है।
अतः यह
कहना अप्रासंगिक या अतार्किक नहीं होगा कि क्रोध जहां रौद्रता को अनुभावित करता है,
वहीं आक्रोश का अनुभावन विरोध में होता है।
प्रसिद्ध
कवि दर्शन ‘बेज़ार’
के ‘देश
खण्डित हो न जाए’, ‘एक
प्रहार लगातार’ के बाद
सद्यः प्रकाशित तेवरी संग्रह ‘ये
ज़ंजीरें कब टूटेंगी’ में स्थायी
भाव आक्रोश सर्वत्र व्याप्त है। आक्रोश के पैदा होने के कई कारण हैं-
1.
वर्तमान सारा का सारा सिस्टम अन्यायकारी है-
तेरे
दुःख से किसे काम है, बोल न
कुछ बहरा निजाम है
कौन
सुनेगा तेरे घर की, गली-गली
में कोहराम है।
2.नौकरशाह
‘जवाबदेही’
से मुक्त होकर सिर्फ लूटने या रिश्वत लेने या
घोटाले करने में लगे हैं-
पिछले
वर्षों में तरक्की ये है सबकी गांव में
सिर्फ
कागज पर सड़क है एक सुख की गांव में।
3.अपराधी,
हिंसकवृत्ति के लोग संसद या विधान सभाओं की शोभा
बढ़ा रहे हैं-
नाम
था जिसे कभी वारंट जारी
आज
उसकी आरती सबने उतारी।
तीन
सौ दो की दफा में लिप्त होकर
खूब
की गन्दी सियासत की सवारी।
4.आचरण
का दुमुंहापन सर्वत्र उजागर हो रहा है-
जेब
में पहुंची सुनामी की उगाही
स्वयंसेवी
संस्था के बन प्रभारी।
5.आम
आदमी की मजबूरी, बदहाली,
कंगाली का अनुचित लाभ आज भी सूदखोर उठा रहे हैं। वे
उसका जमकर शोषण कर रहे हैं, उसे और
कर्ज में डुबा रहे हैं-
‘होरी’
के सर से ये कर्जा कभी न कम हो पायेगा
आज
गयी है गाय कर्ज में कल को घर भी जायेगा।
6.स्वार्थ,
व्यक्तिगत लाभ की लालसा ने समाज के उस नैतिक और
बलिदानी स्वरूप को ही त्यागना शुरू कर दिया, जिससे
गौरवशाली इतिहास रचा जाता है-
भूल गयी सभ्यता उन्हें जो इन्कलाब लेकर आये
पूजे उनके चरण मंच पर भाषण जो देकर छाये।
7.गांव
जो भोलेपन, सच्चाई,
अथाह प्रेम और सद्भाव के प्रतीक थे,
अब समस्त प्रकार की बुराईयों से युक्त हैं-
अब नहीं कोई यहां हंसता व गाता देखिए
गौर से इस गांव की जर्जर व्यवस्था देखिए।
एक मकड़ी की तरह बेज़ार है हर जि़न्दगी
जाल में खुद के यहां हर शख्स फंसता देखिए।
8.पूरे
देश में नारी अपमान और यौन-हिंसा का तांडव जारी है-
एक अभागिन चीरहरण पर विलख-विलख कर चिल्लायी
आंखें नीचे किये उधर से चले गये मुंह फेरे लोग।
9.प्रगति
के नाम पर बढ़ती दुर्गति को लेकर भी कवि के मन में आक्रोश है-
नाम-पट्टिका
लगा यहां पर स्वागत द्वार सजाये हैं
रजवाड़ों की नयी संस्कृति सब पर भारी निकलेगी।
10.पाश्चात्य
सभ्यता के अधोमुखी चिन्तन ने एकता के उस सूत्रा को ही तहत-नहस कर दिया है जो समाज
और समाज की छोटी इकाई परिवार को नेह और प्रेम के साथ बांधकर रखता था। आज हालात यह
हैं-
उनके हिस्से में कुटिया का बस छोटा-सा कोना है
दादी-दादी क्या कर लेंगे जब बंटवारा होना है।
11.अकल
डंकल और गैट की साजिश किसी से छुपी नहीं है। नये-नये-बीजों के सहारे कृषि उत्पादन बढ़ाने के आश्वासन का ही
यह परिणाम है कि भारत के लाखों किसान आत्महत्या कर चुके है। पेटेण्ट बीज’
को लेकर भी कवि के मन में आक्रोश है-
अव्वल तो बीजों का उगना संदेहों के घेरे में
अगर उगे ये बीज, फसल
को रोगग्रस्त ही होना है।
12.देश
के भीतर पनपती स्वान और भाटों की संस्कृति को लेकर भी कवि आक्रोशित है-
बड़े-बड़े कवि उछल-उछलकर विरदावलियां गायेंगे
भाटों जैसी ‘धूमिल’
की छवि बारी-बारी निकलेगी।
‘ये
जंजीरे कब टूटेंगी’ तेवरी
संग्रह के उपरोक्त उदाहरणों से यह तथ्य पूरी तरह उजागर हो जाता है कि तेवरीकार
असंगतियों, विसंगतियों-अनीति-अत्याचार-व्यवस्था
के विद्रूप-अलगाववाद-अपसंकृति के बीच व्यथित-पीडि़त ही नहीं,
आक्रोशित भी है। तेवरीकार के भीतर ज्वालामुखी की
तरह पनपने वाले आक्रोश का विस्फोट विरोधरस के रूप में पहचाना जा सकता है।
आश्रय में किस प्रकार के रस का निर्माण हो रहा है
या हुआ है, इसकी
पहचान उसके अनुभावों से की जाती है। विभाव-अनुभाव-संचारी भाव के योग से बनने वाले
रस की स्थिति का आकलन यदि हम दर्शन बेज़ार के उक्त संग्रह की तेवरियों में करें तो
स्थायी भाव आक्रोश जागृत होने के बाद जो दशा ग्रहण कराता है उसका समस्त स्वरूप
असहमतियुक्त, प्रतिवेदनात्मक
और विरोध को उजागर करने वाला माना जाना चाहिए।
सर्वप्रकार के सामाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक
या प्राकृतिक पतन के जनक मनुष्य की काली करतूतों से आक्रोशित तेवरीकार दर्शन
बेज़ार का मन अन्ततः जिस विरोध की ऊर्जा को प्रकट करता है उसे वाचिक अनुभावों के
माध्यम से इस प्रकार पहचाना जा सकता है-
क-
व्यंग्य का सहारा लेना-
आओ
हम विरदावलि गायें, गीदड़ को
वनराज बतायें
छांट
लिया सच का प्रतीक अब, गिरगिट
को आदर्श बतायें।
ख-अत्याचारियों
के विरुद्ध लोगों को उकसाना-
जालिमों
के रक्त-प्यासे तीर को
तोड़ दे
पावों पड़ी जंजीर को।
है
अगर ‘बेजार’
लिख तू तेवरी
थाम
ले हाथों में इस शमशीर को।
ग-
साजिश का पर्दाफाश करना-
छत
पै दाने कल परिन्दों को जो बिखराकर गया
आज
कोने में छिपा बैठा है वो ही बनके बाज।
घ-
गौरवशाली अतीत की याद दिलाना-
जब
गुलामी के नशे ने एशिया भरमा दिया
तब
अकेले हिन्द ने यूरोप को थर्रा दिया।
च-
साम्प्रदायिक विचारधारा को गलत सिद्ध करना-
एक
वहशी जुनून है सिर पर
उफ्
ये हालत भी क्या हमारी है।
छ-
दबंगों की करतूतों को बताना-
एक
बेवा की जला दी झोंपड़ी सरपंच ने
चल
रहा है गांव में बरसों पुराना ये रिवाज।
ज-
सामाजिक बदलाव के लिये प्रेरित करना-
हकदार
हैं जीने की ये कुचली हुई नस्लें
आखिर
कोई कब तक इन्हें ठोकर लगायेगा।
झ-
क्रान्ति की बातें करना-
सितमगर
के हाथों से ले खींच खंजर
नयी
क्रांति के तू स्वागत में लग जा।
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+रमेशराज,
15/109, ईसानगर, निकट थाना-सासनीगेट, अलीगढ़-202001 मो.-9634551630