Sunday, May 8, 2016

‘ विरोधरस ‘-1 [ शोध-प्रबन्ध ] [ विचारप्रधान कविता का रसात्मक समाधान ] +लेखक - रमेशराज


 विचारप्रधान कविता का रसात्मक समाधान 



‘ विरोधरस ‘---1.   


‘ विरोधरस ‘ [ शोध-प्रबन्ध ]  


+लेखक - रमेशराज

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        ' विरोध रस '
रस-परम्परा एक नये रस की खोज 

समाज में  हमेशा सबकुछ सही घटित नहीं होता और न स्थितियां परिस्थितियां अनुकूल बनी रहती है | मनुष्य से मनुष्य के बीच के सम्बन्धों में जब कटुता उत्पन्न होती है , रिश्तों में स्वार्थ, धन , मद, मोह, अहंकार अपनी जड़ें  जमाने लगता है तो स्वाभाविक रूप से खिन्नता, क्लेश, क्षोभ, तिलमिलाहट, बौखलाहट, उकताहट, झुंझलाहट, बेचैनी, व्यग्रता, छटपटाहट, बुदबुदाहट, कसमसाहट से भरी प्राणी की आत्मा क्रन्दन प्रारम्भ कर देती है। इसी क्रन्दन का नाम है-आक्रोश।
आक्रोश स्वयं की विफलता से उत्पन्न नहीं होता। आक्रोश को उत्पन्न करने वाले कारक हैं-समाज के वे कुपात्र, जो अनीति, अनाचार, अत्याचार, शोषण और साम्राज्यवादी मानसिकता के कारण समाज के सीधे-सच्चे और कमजोर लोगों को अपना शिकार बनाते हैं। उन्हें तरह-तरह की यातना देते हैं। अपमानित करते हैं। उन्हें उनकी मूलभूत सुविधाओं से वंचित करने का कुत्सित प्रयास करते हैं, साधनहीन बनाते हैं। ऐसे लोगों अर्थात् दुष्टों को सबल और अपने को निबल मानकर असहाय और निरूपाय होते जाने का एहसास ही आक्रोश को जन्म देता है। आक्रोश मनुष्य की आत्मा में उत्पन्न हुई एक ऐसी दुःखानुभुति या शोकानुभूति है जो मनुष्य को हर पल विचलित किये रहती है। अपने असुरक्षित और अंधकारमय भविष्य को लेकर मनुष्य का चिंतित होना स्वाभाविक है। मनुष्य की यह चिन्ताएं हमें समाज के हर स्तर पर दिखायी देती हैं।
एक सबल व्यक्ति एक निर्बल-निरपराध व्यक्ति को पीटता है तो पिटने वाला व्यक्ति उसे सामने या उसकी पीठ पीछे लगातार गालियां देता है। उसे तरह-तरह की बद्दुआएं देता है। उसे अनेकानेक प्रकार से कोसता है। धिक्कारता है। उसके विनाश की कामनाएं करता है। किन्तु उस दुष्ट का विनाश करने या उसे ललकार कर पीटने में अपने को असहाय या निरुपाय पाता है। इसी स्थिति को व्यक्त करने के लिए कबीर ने कहा है-
            निर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय,
            मुई खाल की सांस सौं सार भसम ह्वै जाय।
क्या निर्बल की आह को देखकर कभी दुष्टजन सुधरे हैं? उत्तर है-नहीं। उनकी दुष्टता तो निरंतर बढ़ती जाती है। तुलसीदास की मानें तो दुष्टजन दूसरों को परेशान करने या उन्हें यातना देने के लिए सनकी तरह अपनी खाल तक खिंचवा लेते हैं ताकि दूसरों को बांधा  जा सके। दुष्टजन ओलेजैसे स्वभाव के होते हैं, वे तो नष्ट होते ही हैं किन्तु नष्ट होते-होते पूरी फसल को नष्ट कर जाते हैं। ऐसे दुष्ट, समाज को सिर्फ असुरक्षा, भय, यातना, अपमान, तिरस्कार, चोट, आघात और मात देने को सदैव तत्पर रहते हैं।
वर्तमान समाज में निरंतर होती दुष्टजनों की वृद्धि  समाज को जितना असहाय, असुरक्षित और कमजोर कर रही है, समाज में उतना ही आक्रोश परिलक्षित हो रहा है। कहीं पुत्र, पिता की बात न मानकर अभद्र व्यवहार कर रहा है तो कहीं भाई, भाई से कटुवचन बोलने में अपनी सारी ऊर्जा नष्ट कर रहा है। कहीं सास, बहू के लिये सिरदर्द है तो कहीं बहू, सास को अपमानित कर सुख ही नहीं, परमानंद का अनुभव कर रही है।
आज हमारी हर भावना आक्रोश से भर रही है। हर किसी के सीने में एक कटुवचनों की छुरी उतर रही है। अपमानतिरस्कार, उपेक्षा, थोथे दम्भ, घमंड और अहंकार का शिकार आज हमारा पूरा समाज है। निर्लज्ज बहू को देखकर ससुर या जेठ के मन में भयानक टीस है तो बहू को ससुर या सास का व्यवहार तीर या तलवार लग रहा है। किंतु कोई किसी का बिगाड़ कुछ नहीं पा रहा है। इसलिए हर किसी का मन झुंझला रहा है, झल्ला रहा है, बल खा रहा है। उसमें स्थायी भाव आक्रोश लगातार अपनी जड़ें जमा रहा है। इसी झुंझलाने-झल्लाने और बल खाने का ही नाम आक्रोश है। यही स्थायी भाव आक्रोश ‘विरोधरस’ की अनुभूति सामाजिको अर्थात् रस के आश्रयों को कराता है |
आक्रोश एक ऐसा जोश है जिसकी परिणति रौद्रता में कभी नहीं होती। आक्रोश ऊपर से भले ही शोक जैसा लगता है, क्योंकि दुःख का समावेश दोनों में समान रूप से है। लेकिन किसी प्रेमी से विछोह या प्रिय की हानि या मृत्यु पर जो आघात पहुंचता है, उस आघात की वेदना नितांत दुःखात्मक होने के कारण शोक को उत्पन्न करती है, जो करुणा में उद्बोधित  होती है। जबकि आक्रोश को उत्पन्न करने वाले कारकों के प्रति  सामाजिक प्रतिवेदनात्मक  हो जाता है  
किसी कुपात्र का जानबूझकर किया गया अप्रिय या कटु व्यवहार ही मानसिक आघात देता है और इस आघात से ही आक्रोश का जन्म होता है। दुष्ट की छल, धूर्त्तता, मक्कारी और अंहकारपूर्ण गर्वोक्तियां सज्जन को आक्रोश से सिक्त करती हैं।
किसी सेठ या साहूकार द्वारा किसी गरीब का शोषण या उसका निरंतर आर्थिक दोहन गरीब को शोक की ओर नहीं आक्रोश की ओर ले जाता है।
पुलिस द्वारा निरपराध को पीटना, फंसाना, हवालात दिखाना या उसे जेल भिजवाना, बहिन-बेटियों  को छेड़ना, सुरापान कर सड़क पर खड़े होकर गालियां बकना या किसी अफसर या बाबू द्वारा किसी मजबूर का उत्कोचन करना, उसके काम को लापरवाही के साथ लम्बे समय तक लटकाये रखना, उसे बेवजह दुत्कारते-फटकारते रहना या उस पर अन्यायपूर्वक करारोपण कर देना, सरल कार्य को भी बिना सुविधा  शुल्क लिये न करना या किसी दहेज-लालची परिवार द्वारा ससुराल पक्ष के लोगों से अनैतिक मांगे रखना, शोक को नहीं आक्रोश को जन्म देता है।
शोक में मनुष्य बार-बार आत्मप्रलाप या रुदन करता है। अपनी प्रिय वस्तु के खो जाने पर उसे पुनः प्राप्त करने की बार-बार कामना करता है। कृष्ण के गोपियों को छोड़कर चले जाने पर पूरे ब्रज की गोपियों में उत्पन्न हुई शोक की लहर, गोपियों के मन पर एक कहर बनकर अवश्य गिरती है किन्तु उसकी वेदना प्रिय है। गोपियों के अबाध क्रन्दन में भी कृष्ण से मिलन की तड़प है |
एक प्रेमी का प्रेमिका के साथ किया गया छल और बलात्कार किसी भी स्थिति प्यार को जन्म नहीं देता। बलत्कृत प्रेमिका सोते, जागते, उठते, बैठते उसे बार-बार धिक्कारती है। उसके वचन मृदु के स्थान पर कठोर हो जाते हैं। प्रेमी के समक्ष अशक्त, असहाय और निरुपाय हुई प्रेमिका अपने मन के स्तर पर प्रेमी के सीने में खंजर घौंपती है। उसके सर्वनाश की कामना करती है। कुल मिलाकर वह शोक से नहीं, आक्रोश से भरती है, जिसे मनुष्य के ऐसे आंतरिक क्रोध के रूप में माना जा सकता है, जो रौद्रता में तब्दील न होकर विरोधमें  तब्दील होता है।
साहित्य चूंकि मनुष्य के मनोभावों को व्यक्त करने का एक सर्वाधिक्  सशक्त साधन  या  माध्यम है, इसलिए समाज में जो कुछ घटित होता है, उस सबके लिए साहित्य में अभिव्यक्ति के द्वार खुलते हैं। आदि कवि बाल्मीकि की बहेलिये द्वारा कौंच-वध किये जाने पर लिखी गयी पंक्तियां मात्र तड़पते हुए क्रौंच की पीड़ा या दुःख को ही व्यक्त नहीं करतीं। वे उस बहेलिए के कुकृत्य पर भी आक्रोश से सिक्त हैं, जिसने क्रौंच-वध किया। इस तथ्य को प्रमाण के रूप में हम इस प्रकार भी रख सकते हैं कि कविता का जन्म आक्रोश से हुआ है और यदि काव्य का कोई आदि रस है तो वह है-‘विरोध
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 
मो.-9634551630 

‘ विरोधरस ‘---2. काव्य की नूतन विधा तेवरी में विरोधरस +रमेशराज





‘ विरोधरस ‘---2.


काव्य की नूतन विधा तेवरी में विरोधरस

+रमेशराज
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काव्य की नूतन विधा  तेवरीदलित, शोषित, पीडि़त, अपमानित, प्रताडि़त, बलत्कृत, आहत, उत्कोचित, असहाय, निर्बल और निरुपाय मानव की उन सारी मनः स्थितियों की अभिव्यक्ति है जो क्षोभ, तिलमिलाहट, बौखलाहट, झुंझलाहट, बेचैनी, व्यग्रता, छटपटाहट, अपमान, तिरस्कार से भरी हुई है। जिसमें स्थायी भाव आक्रोश है और आताताई अत्याचारी, अनाचारी, व्यभिचारी, बर्बर, निष्ठुर, अहंकारी, छलिया, मक्कार, ध्ूत्र्त और अपस्वार्थी वर्ग के प्रति रस के रूप में सघन होता विरोध है।
कवि के रूप में एक तेवरीकार भी कवि होने से पूर्व इस समाज का एक हिस्सा है। इस कारण वह भी सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, विद्रूपताओं का शिकार न हुआ हो या न होता हो, ऐसा समझना भारी भूल होगी। इसलिए उसका गान [तेवरियां] आह, कराह, अपमान का व्याख्यान न हों, ऐसा कैसे हो सकता है।
कवि के आत्म [रागात्मक-चेतना] का विस्तार जब समूचे संसार की सत्योन्मुखी संवेदना बनकर उभरता है, तभी वह कविता की प्रामणिकता की शर्त को पूरा करता है। एक तेवरीकार का आत्म उस समूचे लोक का आत्म होता है, जिसमें नैतिकता, ईमानदारी और लोकसापेक्ष मूल्यवत्ता, भोलेपन और निर्मलता के साथ वास करती है।
एक  तेवरीकार को हर अनीति इस हद तक दुःखी, खिन्न, क्षुब्ध, त्रस्त और उदास करती है कि जब तक वह उसे अभिव्यक्त नहीं कर लेता, वह बेचैन रहता है। अपनी बेचैनी को दूर करने के लिए  तेवरीकार कहता है-
आदमी की हर कहानी दुःखभरी लिखनी पड़ी,
बात कहनी थी अतः खोटी-खरी लिखनी पड़ी।
जब ग़ज़ल से पौंछ पाया मैं न आंसू की व्यथा,
तब मुझे बेज़ार होकर तेवरी लिखनी पड़ी।|
 [दर्शन बेज़ार,‘देश खण्डित हो न जाए’, पृ. 17 ]
पीडि़त, दलित और शोषित वर्ग की व्यथा तेवरीके सृजन का कारण इसलिए बनती है ताकि हर सामाजिक व्याधि से मुक्त हुआ जा सके। शोषक, बर्बर और आतातायी वर्ग के प्रति तेवरीको एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सके। यह तभी सम्भव है जबकि एक सामाजिक के रूप में पाठक या श्रोता द्वारा तेवरीकार के इस मंतव्य तक पहुंचा जा सके।
तेवरी, सामाजिकों को किस प्रकार और कैसी रसानुभूति कराती है, इसे समझने के लिए तेवरी में अन्तर्निहित स्थायी भाव के रूप में आक्रोश तक पहुंचने की प्रक्रिया को समझना आवश्यक है जो विरोध-रस की रसानुभूति कराती है।
    ‘विरोधइस जगत में  असंतुलन, अराजकता फैलाने वाले उस वर्ग के कुकृत्यों से उत्पन्न होता है जिसके थोथे दम्भ और अहंकार के सामने ये संसार क्रन्दन और चीत्कार कर रहा है। संसार का यह शत्रुवर्ग धूर्त और मक्कार होने के साथ-साथ सबल भी है और अपनी सत्ता को कायम रखने में सफल भी है। इसी के अनाचार और अताचार से सामाजिकों में विरोध उत्पन्न होता है |
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ‘ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630       

‘ विरोधरस ‘---3. || विरोध-रस के आलंबन विभाव || +रमेशराज




‘ विरोधरस ‘---3.

|| विरोध-रस के आलंबन विभाव ||

+रमेशराज
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तेवरी में विरोध-रस के आलंबन विभाव के रूप में इसकी पहचान इस प्रकार की जा सकती है-

सूदखोर-
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लौकिक जगत के सीधे-सच्चे, असहाय और निर्बल प्राणियों का आर्थिक शोषण करने वाला सूदखोर-महाजन या साहूकार एक ऐसा परजीवी जन्तु है जो किसी निर्धन को एक बार ब्याज पर धन  देने के बाद उस धन की वसूली अन्यायपूर्ण, छल-भरे अनैतिक तरीकों से करता है। सूदखोर के कर्ज से लदा हुआ व्यक्ति उसके शिकंजे से या तो मुक्त ही नहीं हो पाता या मुक्त होता है तो भारी हानि उठाने के बाद। विरोध-रस का आलंबन बना सूदखोर तेवरी में इस प्रकार उपस्थित है-
खेत जब-जब भी लहलहाता है,
सेठ का कर्ज याद आता है।
जो भी बनता है पसीने का लहू,
तोंद वालों के काम आता है।
--गिरिमोहन गुरु, कबीर जिन्दा है [ तेवरी-संग्रह ]  पृ.17

हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम,
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।
शोषण, दमन, भूख, उत्पीड़न,बदहाली, कंगाली का,
कब से ना जाने बनकर इतिहास खड़ा है होरीराम।
--सुरेश त्रस्त, कबीर जिन्दा है [ तेवरी-संग्रह ]  पृ. 5

भ्रष्ट नौकरशाह-
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धन के लालच और पद के मद में चूर आज की भ्रष्ट नौकरशाही मुल्क में सिर्फ तबाही ही तबाही के मंजर पेश कर रही है। जनता के लिये बनी कल्याणकारी योजनाएं इसकी फाइलों में कैद होकर सिसकती हुई कथाएं बनकर रह गयी हैं। फाइलों के आंकड़ों में तो खुशहाली ही खुशहाली है, लेकिन इनसे अलग पूरे मुल्क में कंगाली ही कंगाली है। जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमायी पर गुलछरें उड़ाते ये जनता के कथित सेवक जनता से सीधे मुंह बात नहीं करते। अपने को शासक मानकर ये मूंछों पर ताव देते हैं। न्याय के नाम पर सिर्फ घाव देते हैं। हर काम के बदले इनके सुविधा शुल्क [घूस] ने इन्हें भव्य कोठियों, आलीशान कारों में जीने का आदी बना दिया है। इनकी मौज-मस्ती में भारी इजाफा किया है। बदले में देश की जनता को इन्होंने केवल उलझनों, समस्याओं भरा जीवन दिया है। विरोध-रस का आलंबन बना जनता को तबाह करता नौकरशाह तेवरी में अपनी काली करतूतों के साथ किस प्रकार मौजूद है, आइए देखिए-
बीते कल की आस हमारी मुट्ठी में,
कितनी हुई उदास हमारी मुट्ठी में।
फर-फर उड़ती मेज के ऊपर बेकारी,
दबी फाइलें खास हमारी मुटठी में। 
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राहत तुमको ये कल देंगे, बातें झूठी,
बिन खाये कुछ चावल देंगे, बातें झूठी।
सिक्कों से चलते हों जिनके नाते-रिश्ते,
साथ तुम्हारे वे चल देंगे, बातें झूठी।
--राजेश मेहरोत्रा, 'कबीर जिन्दा है' पृ. 9 11

दुश्मनों के वार पर मुस्कराइए,
इस सियासी प्यार पर मुस्कराइए।
योजनाएं ढो रही हैं फाइलें,
देश के उद्धार पर मुस्काइए।
--अनिल अनल, 'इतिहास घायल है'  [ तेवरी-संग्रह ]  पृ.15

वैसे तो बिच्छुओं की तरह काटते हैं ये,
अटकी पै मगर तलुबा तलक चाटते हैं ये।
मजबूरियों की कैद में देखा जो किसी को,
हर बात पै कानून-नियम छांटते हैं ये।
--गिरिमोहन गुरु, कबीर जिन्दा है  [ तेवरी-संग्रह ] पृ. 24

 भ्रष्ट पुलिस-
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कुछ अपवादों को छोड़कर यदि खाकी बर्दी में डकैतों, चोरों, बेईमानों, बलात्कारियों, ठगों का साक्षात्कार करना हो तो हिन्दुस्तान की पुलिस इसका जीता-जागता प्रमाण है। एक दरोगा से लेकर सिपाही तक न्याय के नाम पर आज नेता, धनवान, बलवान और अत्याचारी से गठजोड़ कर किस तरह आम आदमी को प्रताडि़त कर रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है। गुण्डे, बलात्कारियों, चोरों, डकैतों को सरंक्षण देने के कुकृत्यों में लिप्त हमारी पुलिस आज असहाय-निर्दोष और पीडि़तों को न्याय देने या दिलाने के नाम पर अत्याचार और अन्याय का पर्याय बन चुकी है। जिन थानों में बलत्कृत, अपमानित और पीडि़त अबला की रिपेार्ट दर्ज होनी चाहिए, वहां का आलम यह है--
गोबर को थाने से डर है,
झुनियां आज जवान हो गयी।
--अरुण लहरी, कबीर जिंदा है [ तेवरी-संग्रह ]  पृ. 50
आज द्रोपदी का कान्हा ही,
नोच रहा है तन लिखने दो।
--दर्शन बेजार, ‘एक प्रहारः लगातार [ तेवरी-संग्रह ]  पृ. 46
 सत्यमेव जयतेके नारे आज हर थाने की दीवार पर शोभित हैं। किन्तु सबसे अधिक सत्य का गला थानों में ही घौंटा जाता है। इन्सानियत के दुश्मन हैवानियत के पुजारी पुलिस वाले आज क्या नहीं कर रहे-
डालते हैं वो डकैती रात में,
जो यहां दिन में हिपफाजत कर रहे।
;दर्शन बेजार, ‘एक प्रहारः लगातार [ तेवरी-संग्रह ]  पृ. 23

बन गया है एक थाना आजकल घर के करीब,
खौफ से दीवार तक हिलने लगी है बंधु अब।
--अजय अंचल’, ‘अभी जुबां कटी नहीं [ तेवरी-संग्रह ] पृ. 22

  नेता-
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पीडि़त, शोषित, दलित जनता का नेतृत्व करने वाले को नेता कहा जाता है। जनता की आजादी के लिए असीम और कष्टकारी संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी सुभाषचंद्र बोस को इस देश ने सर्वप्रथम सम्मानपूर्वक नेताजीसम्बोधन से अंलकृत किया था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आज गुण्डा, तस्कर, डकैत, चोर, भ्रष्टाचारी देश और जनता के साथ छल और विश्वासघात करने वाले अधिकाँश कुकर्मी नेताजीहैं, जिन्होंने देश को जातिवाद, साम्प्रदायिकता और प्रान्तवाद की आग में झौंक दिया है।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नाम को कलंकित करने वाले नेता आज एक शातिर अपराधी  की भूमिका में हैं, किन्तु दुर्भाग्य से ऐसे लोग देश के मेयर, जिला परिषद् अध्यक्ष, विधायक, सांसद, मंत्री  के रूप में माननीयबने हुए हैं। इन माननीय नेताओं की काली करतूतें भी कोई कम नहीं। ये बड़े-बड़े घोटालों के जनक हैं। इनके संरक्षण में जालसाजी के अड्डे, चकलाघर, देशी शराब बनाने की अवैध भट्टियां, जाली नोट छापने के कारखाने चल रहे हैं। ये बोपफोर्स तोपों, पनडुब्बियों, सीमेंट, खादी, ताबूत, चारा, यूरिया, काॅमनवल्थ गेम, आदर्श सोसायटी, 2जी स्पेक्ट्रम के सौदों में घोटाले कर रहे हैं और उसके कमीशन को निगल रहे हैं।
सुरक्षा गार्डों की रायपफलों और अपने अवैध शस्त्रों से लैस होकर नेताओं के काफिले जिधर से भी गुजरते हैं, आईजी, डीआईजी, एसपी, एसएसपी इन्हें शीश  झुकाते हैं। इनकी खातिर गुलामों की मुद्रा में अफसरों के सैल्यूट, खट-खट बजते पुलिस के बूट इस बात की गवाही देते हैं कि आज के ये लुटेरे भले ही अंधेरे के पोषक हैं, लेकिन इन्होंने पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया है। पूरे के पूरे देश को नेताजीबनकर हलाल कर लिया है। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को तिरंगा लहराते, वंदे मातरम् के नारे लगाते नहीं अघाते ये लोग खादी को ओट में जनता की आजादी के सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं। इनके इरादे आजादी के खून से सने हुए हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हिमायतदार ये सारे के सारे नेताजीहमारी आजादी फिर विदेशी दादाजीकी बपौती बनाने पर तुले हैं। कमाल देखिए इतने कुकृत्यों के बावजूद ये दूध् के धुले हैं। जनता के मन में  बताशे-से घुले हैं। आज सोने के कलश में भरे विष का नाम ही नेताजीहै। इसलिए ये कहीं बापजीहै तो कहीं संतजीहैं। कहीं काजीहैं तो कहीं महन्तजीहैं। कहीं इमामबन जनता को गुमराह कर रहे हैं तो कहीं साधु'  या साध्वीबनकर जहर उगल रहे हैं।
नेताओं के षड्यंत्रों के खूबसूरत चक्रव्यूह भले ही जनता की रूह को बेचैन किये हों लेकिन वह इन भ्रष्ट नेताओं का कुछ भी बिगाड़ नहीं पा रही है। चाणक्य की नीतियों को अमलीजामा पहनाने वाले हमारे ये नेता, कराहती जनता के भीतर पनपते आक्रोश को दबाने के लिये अश्लीलता फैलाने, समाज को व्यभिचार में डुबाने के लिये प्रिण्ट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर भी अपनी पकड़ मजबूत बनाने में जुटे हैं।
भले ही मीडिया आज अपने को सत्य और जनता का पुजारी बनने का ढोंग रचें, लेकिन सच्चाई यह है कि जनता इनके अश्लील, अंधविश्वासी और कथित धार्मिक इन्द्रजाल के मोहपाश में जकड़ी हुई है। यह सब किसी और के नहीं इन्हीं नेताओं के इशारे पर हो रहा है। सिनेमा हाल में  पिक्चर के साथ दिखाये जाने वाले ब्लूफिल्मों के टुकड़े समाज में बढ़ती बलात्कार की घटनाओं के उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने साइबर कैफे। लेकिन नेताजी इस पर मौन हैं |
हमारे नेताजी को इस विकृत होते सामाजिक समीकरण को बदलने की चिन्ता नहीं है। उसकी चिन्ता तो गद्दी और अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने की है-
राजा जी को डर है उनकी पड़े न खतरे में गद्दी
इसीलिये वे बढ़ा रहे हैं-हाला, प्याला, मधुशाला।
[रमेशराज, ‘मधु-सा ला]
एक सजग तेवरीकार के लिये ये सारी स्थितियां ही असह्य, वेदनादायी, क्षुब्धकारी और आक्रोश से सिक्त करने वाली हैं। जहां जनता को सुविधा  और खुशहाली प्रदान करने के नाम पर पुलिस के ठोकर मारते बूट और दुनाली हैं, वहां तेवरीकार की आत्मा [रागात्मक चेतना ] क्रन्दन न करे, आक्रोश से न भरे और यह स्थिति तेवरी के रूप में रचनाकर्म में न उतरे, ऐसी हो ही नहीं सकता।
स्थायी भाव आक्रोश से सिक्त विरोध-रस का आलंबन बनने वाले नेताओं के विभिन्न रूप तेवरी में इस प्रकार देखे जा सकते हैं-
धर्म को बेचने वाले वतन भी बेच डालेंगे,
सत्य के सूर्य की चुन-चुन किरन भी बेच डालेंगे।
[सुरेश त्रस्त, ‘इतिहास घायल है[तेवरी-संग्रह]  पृ. 30 ]
स्थायी भाव आक्रोश से सिक्त विरोध-रस का आलंबन बनने वाले नेताओं के विभिन्न रूप तेवरी में इस प्रकार देखे जा सकते हैं-
आप अपनी हकीकत छुपाएंगे कब तक,
नकाबों में सम्मान पाएंगे कब तक।
आप सोऐंगे संसद में कितने दिनों तक,
हम किबाड़ों पै दस्तक लगायेंगे कब तक?
[ विजयपाल सिंह, ‘इतिहास घायल है[तेवरी-संग्रह] पृ. 23 ]
स्थायी भाव आक्रोश से सिक्त विरोध-रस का आलंबन बनने वाले नेताओं के विभिन्न रूप तेवरी में इस प्रकार देखे जा सकते हैं-
अब सजाते हैं इसे तस्कर, डकैत देखिए,
राजनीति खून का  शंृगार होती जा रही।
लूटकर खाते हैं अब वे देश की हर योजना,
उनकी खातिर हर प्रगति आहार होती जा रही।
[ अरुण लहरी, ‘कबीर जिन्दा है [तेवरी-संग्रह ] पृ. 48 ]

साम्प्रदायिक तत्त्व-  
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ध्रर्म पूरे विश्व का एक है। हम सब हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई होने से पहले इन्सान हैं। पूरे विश्व के इंसानों का हंसने-रोने, जन्म लेने, मरने का तरीका एक है। हम सबकी आंखें, पांव, नाखून, मुंह, कान, बाल एक समान हैं। हम सबके स्वेद, कंपन, विहँसन, क्रंदन, थिरकन में एक जैसे अनुभाव हैं। भूख, प्यास और नींद हमें समान प्रकार की है । फिर भेद कहां हैं? हमारे समान मानवीय रूप-स्वरूप के बीच छेद कहां है?
प्रकृति फूलों को खिलाने, चांदनी बिखेरने, धूप लुटाने, जल बरसाने में जब मनुष्य से मनुष्य के बीच कोई भेद नहीं करती तो मनुष्य इतना पागल और स्वार्थी क्यों है? प्रकृति और मनुष्य के इतने साम्य या एकता के बावजूद अनेकता की दरारों को चौड़ी कर खाइयां बनाने या उन्हें और बढ़ाने में मनुष्य को सुख की प्रतीति क्यों होती है? यह मनुष्य का छद्म और बेबुनियाद अहंकार ही है कि उसने रंगभेद, जाति-भेद, नस्ल-भेद के आधर पर वार और उपचार के घिनौने तरीके ईजाद कर लिये हैं। अपने सोचों में ऐसे जल्लाद भर लिये हैं जो कि एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं। ध्रर्म के नाम पर सम्प्रदायों के अधर्म का मर्म ही इन्हें सच्चा और न्यायपरक लगता है।
सम्प्रदाय यदि सच्चे ध्रर्म का अल्पांश भी लेकर चले तो सूर्यांश हो जाता है। किंतु उजाले के नाम पर एक-दूसरे की जि़ंदगी में अंधेरा भरने वाले सम्प्रदाय, परोक्ष या अपरोक्ष आज हायभर रहे हैं। धर्म   का नाम लेकर एक-दूसरे की गर्दन कतर रहे हैं। निर्दोषों, निर्बलों के घर उजाड़ रहे हैं। अबोध बच्चों, बूढ़ों और अबलाओं के पेट में चाकू उतार रहे हैं। इनके अपने-अपने अलग-अलग भगवान हैं, इसलिए इन्हें लगता है कि ये ही श्रेष्ठ हैं, महान हैं। एक-दूसरे के सम्प्रदाय को निकृष्ट या नीच समझने वाले ये सम्प्रदाय, धर्म के नाम पर लाशों का घिनौना व्यवसाय करते हैं। मनुष्य जाति का समूल नाश करने में ये दूसरे के क्या, अपने ही सम्प्रदाय के भगवान से नहीं डरते हैं। ये जहां भी अपने कुत्सित इरादों को लेकर उतरते हैं वहां चीत्कार और हाहाकार के मंजर पेश करते हैं।
ऐसे साम्प्रदायिक उन्माद के बीच कवि के रूप में एक तेवरीकार का मन आक्रोशको सघन करता है। और यह आक्रोश उसके रचना-कर्म में विरोध-रस को परिपक्व बनाता है और ध्रर्म के नकाब में छुपे हुए अधर्मी की पहचान इस प्रकार कराता है-
कलियुगी भगवान ये भग के पुजारी,
भोग को अब योग बतलाने लगे हैं।
-गिरिमोहन गुरु, ‘कबीर जिंदा हैपृ-20

उसका मजहब खून-खराबा,
वह चाकू में सिद्धहस्त है।
-सुरेश त्रस्त, कबीर जिंदा है[तेवरी-संग्रह ] पृ-5

ध्रर्मग्रंथों पर लगाकर खून के धब्बे ,
लोग पण्डित हो रहे हैं एकता के नाम पर।
-गिरीश गौरव,‘इतिहास घायल है[तेवरी-संग्रह ] पृ-34

वे क्या जानें जनहित यारो,
नरसंहार ध्रर्म है उनका।
लड़वाते हैं हिंदू-मुस्लिम,
रक्ताहार ध्रर्म  है उनका।
-अरुण लहरी, ‘अभी जुबां कटी नहीं[तेवरी-संग्रह ] पृ-10

बेच दी जिन शातिरों ने लाश तक ईमान की,
ढूंढते हैं आप उन में  शक़्ल क्यों इंसान की।
लूटना मजहब बना हो जिन लुटेरों के लिए,
ओढ़ते हैं वे यकीनन सूरतें भगवान की।
-दर्शन बेजार,‘ एक प्रहारः लगातार[तेवरी-संग्रह ] पृ-46
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ‘ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630       

‘ विरोधरस ‘---4. ‘विरोध-रस’ के अन्य आलम्बन- +रमेशराज






‘ विरोधरस ‘---4.



विरोध-रसके अन्य आलम्बन-   

+रमेशराज  
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   ‘विरोध-रसस्थायी भाव आक्रोशसे उत्पन्न होता है और इसी स्थायी भाव आक्रोश को उद्दीप्त करने वाले कारकों में सूदखोर में, भ्रष्ट नौकरशाह, भ्रष्ट पुलिस, नेता, साम्प्रदायिक तत्वों के अतिरिक्त ऐसे अनेक कुपात्र हैं जो समाज की लाज के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। एय्याशी इनकी नसों में खून की तरह दौड़ रही है। इनके भीतर पवित्र रिश्तों की कहानी भी हनीमून की तरह दौड़ रही है। भोग-विलासी स्वभाव के ये लोग कलियों को मसलते हैं। इनके सोच बहिन, बेटियों, मां, भान्जी, भतीजी को लेकर वासना में फिसलते हैं। कोठे के भोग-विलास लेकर अबला, अबोध बालिकाओं के साथ ये बलात्कार करते हैं।
दुष्ट लोगों का एक अन्य वर्ग ऐसा है जो जहर देकर आदमियों को ट्रेनों या बसों में लूटता है। जेबें कतरता है। अटैचियां उड़ाता है। लोगों को मूर्ख बनाता है। अपने साधुई रूप में धनवृद्धि का लालच देता है और ठगकर चला जाता है।
धन के लोभ या लालच का संक्रामक रोग कुछ समय को सुविधा या भोग का योग जरूर बनाता है, लेकिन इस लालची सभ्यता के कारण जाने कितने लोगों की खुशियों का चीरहरण होता है, इसे जानने की फुरसत किसे है। धन के लालच में डाॅक्टर मरीज की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहा है। सास, गरीब-बाप की बेटी-बहू को कुलटा कुलक्षणी बता रही है। उसे घर से बाहर निकाल रही है। उसके मां-बाप की इज्जत उछाल रही है।
जमीन-जायदाद के झगड़े आज आम हैं। थाने या अदालत में भाई, चाचा, ताऊ, पिता पर मारपीट के इल्जाम हैं। धन जुटाने की तीव्र होड़ आज एक को सम्पन्न तो एक को निचोड़ रही है। समाज या परिवार के रिश्ते-नातों को तोड़ रही है। धन पाने के लिये कोई नकली नोट बना रहा है, तो कोई धनिये  में लीद मिला रहा है। कहीं नकली दवा का कारोबार है तो कहीं जाली नोटों और स्टाम्पों के बलबूते आती हुई रोशनी के पीछे ठगई, शोषण, डकैती के माल का कमाल है। यह मकड़ी का ऐसा बुना हुआ एक ऐसा जाल है जिसके भीतर शेयर बाजार जैसी उछाल है।
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ‘ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 

मो.-9634551630