‘ विरोधरस ‘---3.
|| विरोध-रस के
आलंबन विभाव ||
+रमेशराज
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तेवरी में विरोध-रस के आलंबन विभाव के रूप में इसकी पहचान इस प्रकार की जा सकती है-
सूदखोर-
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लौकिक जगत के सीधे-सच्चे, असहाय और निर्बल प्राणियों का आर्थिक शोषण करने
वाला सूदखोर-महाजन या साहूकार एक ऐसा परजीवी जन्तु है जो किसी
निर्धन को एक बार ब्याज पर धन देने के बाद
उस धन की वसूली अन्यायपूर्ण, छल-भरे अनैतिक
तरीकों से करता है। सूदखोर के कर्ज से लदा हुआ व्यक्ति उसके शिकंजे से या तो मुक्त
ही नहीं हो पाता या मुक्त होता है तो भारी हानि उठाने के बाद। विरोध-रस का आलंबन बना सूदखोर तेवरी में इस प्रकार उपस्थित है-
खेत जब-जब भी लहलहाता है,
सेठ का कर्ज याद आता है।
जो भी बनता है पसीने का लहू,
तोंद वालों के काम आता है।
--गिरिमोहन गुरु, कबीर जिन्दा है [ तेवरी-संग्रह ]
पृ.17
हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम,
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।
शोषण, दमन, भूख, उत्पीड़न,बदहाली, कंगाली का,
कब से ना जाने बनकर इतिहास खड़ा है होरीराम।
--सुरेश त्रस्त, कबीर जिन्दा है [ तेवरी-संग्रह ]
पृ. 5
भ्रष्ट नौकरशाह-
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धन के लालच और पद के मद में चूर आज की भ्रष्ट नौकरशाही
मुल्क में सिर्फ तबाही ही तबाही के मंजर पेश कर रही है। जनता के लिये बनी कल्याणकारी
योजनाएं इसकी फाइलों में कैद होकर सिसकती हुई कथाएं बनकर रह गयी हैं। फाइलों के आंकड़ों
में तो खुशहाली ही खुशहाली है, लेकिन इनसे अलग पूरे
मुल्क में कंगाली ही कंगाली है। जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमायी
पर गुलछरें उड़ाते ये जनता के कथित सेवक जनता से सीधे मुंह बात नहीं करते। अपने को
शासक मानकर ये मूंछों पर ताव देते हैं। न्याय के नाम पर सिर्फ घाव देते हैं। हर काम
के बदले इनके सुविधा शुल्क [घूस] ने इन्हें भव्य कोठियों, आलीशान
कारों में जीने का आदी बना दिया है। इनकी मौज-मस्ती में भारी
इजाफा किया है। बदले में देश की जनता को इन्होंने केवल उलझनों, समस्याओं भरा जीवन दिया है। विरोध-रस का आलंबन बना जनता
को तबाह करता नौकरशाह तेवरी में अपनी काली करतूतों के साथ किस प्रकार मौजूद है,
आइए देखिए-
बीते कल की आस हमारी मुट्ठी में,
कितनी हुई उदास हमारी मुट्ठी में।
फर-फर उड़ती मेज के ऊपर
बेकारी,
दबी फाइलें खास हमारी मुटठी में।
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राहत तुमको ये कल देंगे, बातें झूठी,
बिन खाये कुछ चावल देंगे, बातें झूठी।
सिक्कों से चलते हों जिनके नाते-रिश्ते,
साथ तुम्हारे वे चल देंगे, बातें झूठी।
--राजेश मेहरोत्रा, 'कबीर जिन्दा है' पृ. 9 व 11
दुश्मनों के वार पर मुस्कराइए,
इस सियासी प्यार पर मुस्कराइए।
योजनाएं ढो रही हैं फाइलें,
देश के उद्धार पर मुस्काइए।
--अनिल अनल, 'इतिहास घायल
है' [ तेवरी-संग्रह ] पृ.15
वैसे तो बिच्छुओं की तरह काटते हैं ये,
अटकी पै मगर तलुबा तलक चाटते हैं ये।
मजबूरियों की कैद में देखा जो किसी को,
हर बात पै कानून-नियम छांटते हैं ये।
--गिरिमोहन गुरु, कबीर जिन्दा है [ तेवरी-संग्रह ] पृ.
24
भ्रष्ट पुलिस-
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कुछ अपवादों को छोड़कर यदि खाकी बर्दी में डकैतों, चोरों, बेईमानों, बलात्कारियों,
ठगों का साक्षात्कार करना हो तो हिन्दुस्तान की पुलिस इसका जीता-जागता प्रमाण है। एक दरोगा से लेकर सिपाही तक न्याय के नाम पर आज नेता,
धनवान, बलवान और अत्याचारी से गठजोड़ कर किस तरह
आम आदमी को प्रताडि़त कर रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है। गुण्डे,
बलात्कारियों, चोरों, डकैतों
को सरंक्षण देने के कुकृत्यों में लिप्त हमारी पुलिस आज असहाय-निर्दोष और पीडि़तों को न्याय देने या दिलाने के नाम पर अत्याचार और अन्याय
का पर्याय बन चुकी है। जिन थानों में बलत्कृत, अपमानित और पीडि़त
अबला की रिपेार्ट दर्ज होनी चाहिए, वहां का आलम यह है--
गोबर को थाने से डर है,
झुनियां आज जवान हो गयी।
--अरुण लहरी, कबीर जिंदा
है [ तेवरी-संग्रह ] पृ. 50
आज द्रोपदी का कान्हा ही,
नोच रहा है तन लिखने दो।
--दर्शन बेजार, ‘एक प्रहारः लगातार’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ. 46
‘सत्यमेव जयते’ के नारे आज हर थाने की दीवार पर शोभित
हैं। किन्तु सबसे अधिक सत्य का गला थानों में ही घौंटा जाता है। इन्सानियत के दुश्मन
हैवानियत के पुजारी पुलिस वाले आज क्या नहीं कर रहे-
डालते हैं वो डकैती रात में,
जो यहां दिन में हिपफाजत कर रहे।
;दर्शन बेजार, ‘एक प्रहारः लगातार’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ. 23
बन गया है एक थाना आजकल घर के करीब,
खौफ से दीवार तक हिलने लगी है बंधु अब।
--अजय ‘अंचल’, ‘अभी जुबां कटी नहीं’ [ तेवरी-संग्रह ] पृ. 22
नेता-
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पीडि़त, शोषित, दलित जनता का नेतृत्व करने वाले को नेता कहा जाता है। जनता की आजादी के लिए
असीम और कष्टकारी संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी सुभाषचंद्र बोस को इस देश ने सर्वप्रथम
सम्मानपूर्वक ‘नेताजी’ सम्बोधन से अंलकृत
किया था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आज गुण्डा, तस्कर,
डकैत, चोर, भ्रष्टाचारी देश
और जनता के साथ छल और विश्वासघात करने वाले अधिकाँश कुकर्मी ‘नेताजी’ हैं, जिन्होंने देश को
जातिवाद, साम्प्रदायिकता और प्रान्तवाद की आग में झौंक दिया है।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नाम को कलंकित करने
वाले नेता आज एक शातिर अपराधी की भूमिका में
हैं, किन्तु दुर्भाग्य से ऐसे लोग देश के मेयर,
जिला परिषद् अध्यक्ष, विधायक, सांसद, मंत्री के रूप में ‘माननीय’
बने हुए हैं। इन माननीय नेताओं की काली करतूतें भी कोई कम नहीं। ये बड़े-बड़े घोटालों के जनक हैं। इनके संरक्षण में जालसाजी के अड्डे, चकलाघर, देशी शराब बनाने की अवैध भट्टियां, जाली नोट छापने के कारखाने चल रहे हैं। ये बोपफोर्स तोपों, पनडुब्बियों, सीमेंट, खादी,
ताबूत, चारा, यूरिया,
काॅमनवल्थ गेम, आदर्श सोसायटी, 2जी स्पेक्ट्रम के सौदों में घोटाले कर रहे हैं और उसके कमीशन को निगल रहे हैं।
सुरक्षा गार्डों की रायपफलों और अपने अवैध शस्त्रों
से लैस होकर नेताओं के काफिले जिधर से भी गुजरते हैं, आईजी, डीआईजी, एसपी, एसएसपी इन्हें शीश झुकाते हैं। इनकी
खातिर गुलामों की मुद्रा में अफसरों के सैल्यूट, खट-खट बजते पुलिस के बूट इस बात की गवाही देते हैं कि आज के ये लुटेरे भले ही
अंधेरे के पोषक हैं, लेकिन इन्होंने पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी
को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया है। पूरे के पूरे देश को ‘नेताजी’ बनकर हलाल कर लिया है। पंद्रह अगस्त और छब्बीस
जनवरी को तिरंगा लहराते, वंदे मातरम् के नारे लगाते नहीं अघाते
ये लोग खादी को ओट में जनता की आजादी के सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं। इनके इरादे
आजादी के खून से सने हुए हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हिमायतदार ये सारे के
सारे ‘नेताजी’ हमारी आजादी फिर विदेशी
‘दादाजी’ की बपौती बनाने पर तुले हैं। कमाल
देखिए इतने कुकृत्यों के बावजूद ये दूध् के धुले हैं। जनता के मन में बताशे-से घुले हैं। आज सोने
के कलश में भरे विष का नाम ही ‘नेताजी’ है। इसलिए ये कहीं ‘बापजी’ है तो
कहीं ‘संतजी’ हैं। कहीं ‘काजी’ हैं तो कहीं ‘महन्तजी’
हैं। कहीं ‘इमाम’ बन जनता
को गुमराह कर रहे हैं तो कहीं ‘साधु' या साध्वी’ बनकर जहर उगल रहे
हैं।
नेताओं के षड्यंत्रों के खूबसूरत चक्रव्यूह भले
ही जनता की रूह को बेचैन किये हों लेकिन वह इन भ्रष्ट नेताओं का कुछ भी बिगाड़ नहीं
पा रही है। चाणक्य की नीतियों को अमलीजामा पहनाने वाले हमारे ये नेता, कराहती जनता के भीतर पनपते आक्रोश को दबाने के लिये अश्लीलता फैलाने,
समाज को व्यभिचार में डुबाने के लिये प्रिण्ट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया
पर भी अपनी पकड़ मजबूत बनाने में जुटे हैं।
भले ही मीडिया आज अपने को सत्य और जनता का पुजारी
बनने का ढोंग रचें, लेकिन सच्चाई यह है कि जनता इनके अश्लील,
अंधविश्वासी और कथित धार्मिक इन्द्रजाल के मोहपाश में जकड़ी हुई है।
यह सब किसी और के नहीं इन्हीं नेताओं के इशारे पर हो रहा है। सिनेमा हाल में पिक्चर के साथ दिखाये जाने वाले ब्लूफिल्मों के टुकड़े
समाज में बढ़ती बलात्कार की घटनाओं के उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने साइबर कैफे। लेकिन नेताजी इस पर मौन हैं |
हमारे नेताजी को इस विकृत होते सामाजिक समीकरण
को बदलने की चिन्ता नहीं है। उसकी चिन्ता तो गद्दी और अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने
की है-
राजा जी को डर है उनकी पड़े न खतरे में गद्दी
इसीलिये वे बढ़ा रहे हैं-हाला, प्याला, मधुशाला।
[रमेशराज, ‘मधु-सा ला’]
एक सजग तेवरीकार के लिये ये सारी स्थितियां ही
असह्य, वेदनादायी, क्षुब्धकारी और
आक्रोश से सिक्त करने वाली हैं। जहां जनता को सुविधा और खुशहाली प्रदान करने के नाम पर पुलिस के ठोकर
मारते बूट और दुनाली हैं, वहां तेवरीकार की आत्मा [रागात्मक चेतना
] क्रन्दन न करे, आक्रोश से न भरे और यह स्थिति तेवरी के रूप
में रचनाकर्म में न उतरे, ऐसी हो ही नहीं सकता।
स्थायी भाव आक्रोश से सिक्त विरोध-रस का आलंबन बनने वाले नेताओं के विभिन्न रूप तेवरी में इस प्रकार देखे जा
सकते हैं-
धर्म को बेचने वाले वतन भी बेच डालेंगे,
सत्य के सूर्य की चुन-चुन किरन भी बेच डालेंगे।
[सुरेश त्रस्त, ‘इतिहास घायल है’[तेवरी-संग्रह] पृ. 30 ]
स्थायी भाव आक्रोश से सिक्त विरोध-रस का आलंबन बनने वाले नेताओं के विभिन्न रूप तेवरी में इस प्रकार देखे जा
सकते हैं-
आप अपनी हकीकत छुपाएंगे कब तक,
नकाबों में सम्मान पाएंगे कब तक।
आप सोऐंगे संसद में कितने दिनों तक,
हम किबाड़ों पै दस्तक लगायेंगे कब तक?
[ विजयपाल सिंह, ‘इतिहास घायल है’ [तेवरी-संग्रह]
पृ. 23 ]
स्थायी भाव आक्रोश से सिक्त विरोध-रस का आलंबन बनने वाले नेताओं के विभिन्न रूप तेवरी में इस प्रकार देखे जा
सकते हैं-
अब सजाते हैं इसे तस्कर, डकैत देखिए,
राजनीति खून का
शंृगार होती जा रही।
लूटकर खाते हैं अब वे देश की हर योजना,
उनकी खातिर हर प्रगति आहार होती जा रही।
[ अरुण लहरी, ‘कबीर जिन्दा
है’ [तेवरी-संग्रह ] पृ. 48 ]
साम्प्रदायिक तत्त्व-
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ध्रर्म पूरे विश्व का एक है। हम सब हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई होने से पहले
इन्सान हैं। पूरे विश्व के इंसानों का हंसने-रोने, जन्म लेने, मरने का तरीका एक है। हम सबकी आंखें,
पांव, नाखून, मुंह,
कान, बाल एक समान हैं। हम सबके स्वेद, कंपन, विहँसन, क्रंदन, थिरकन में एक जैसे अनुभाव हैं। भूख, प्यास और नींद हमें
समान प्रकार की है । फिर भेद कहां हैं? हमारे समान मानवीय रूप-स्वरूप के बीच छेद कहां है?
प्रकृति फूलों को खिलाने, चांदनी बिखेरने, धूप लुटाने, जल
बरसाने में जब मनुष्य से मनुष्य के बीच कोई भेद नहीं करती तो मनुष्य इतना पागल और स्वार्थी
क्यों है? प्रकृति और मनुष्य के इतने साम्य या एकता के बावजूद
अनेकता की दरारों को चौड़ी कर खाइयां बनाने या उन्हें और बढ़ाने में मनुष्य को सुख
की प्रतीति क्यों होती है? यह मनुष्य का छद्म और बेबुनियाद अहंकार
ही है कि उसने रंगभेद, जाति-भेद,
नस्ल-भेद के आधर पर वार और उपचार के घिनौने तरीके
ईजाद कर लिये हैं। अपने सोचों में ऐसे जल्लाद भर लिये हैं जो कि एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं। ध्रर्म के नाम पर सम्प्रदायों के अधर्म का मर्म
ही इन्हें सच्चा और न्यायपरक लगता है।
सम्प्रदाय यदि सच्चे ध्रर्म का अल्पांश भी लेकर
चले तो सूर्यांश हो जाता है। किंतु उजाले के नाम पर एक-दूसरे की जि़ंदगी में अंधेरा भरने वाले सम्प्रदाय, परोक्ष
या अपरोक्ष आज ‘हाय’ भर रहे हैं। धर्म का नाम लेकर एक-दूसरे की गर्दन
कतर रहे हैं। निर्दोषों, निर्बलों के घर उजाड़ रहे हैं। अबोध
बच्चों, बूढ़ों और अबलाओं के पेट में चाकू उतार रहे हैं। इनके
अपने-अपने अलग-अलग भगवान हैं, इसलिए इन्हें लगता है कि ये ही श्रेष्ठ हैं, महान हैं।
एक-दूसरे के सम्प्रदाय को निकृष्ट या नीच समझने वाले ये सम्प्रदाय,
धर्म के नाम पर लाशों का घिनौना व्यवसाय करते हैं। मनुष्य जाति का समूल
नाश करने में ये दूसरे के क्या, अपने ही सम्प्रदाय के भगवान से
नहीं डरते हैं। ये जहां भी अपने कुत्सित इरादों को लेकर उतरते हैं वहां चीत्कार और
हाहाकार के मंजर पेश करते हैं।
ऐसे साम्प्रदायिक उन्माद के बीच कवि के रूप में
एक तेवरीकार का मन ‘आक्रोश’ को सघन
करता है। और यह आक्रोश उसके रचना-कर्म में विरोध-रस को परिपक्व बनाता है और ध्रर्म के नकाब में छुपे हुए अधर्मी की पहचान इस
प्रकार कराता है-
कलियुगी भगवान ये भग के पुजारी,
भोग को अब योग बतलाने लगे हैं।
-गिरिमोहन गुरु, ‘कबीर जिंदा है’ पृ-20
उसका मजहब खून-खराबा,
वह चाकू में सिद्धहस्त है।
-सुरेश त्रस्त, कबीर जिंदा है’ [तेवरी-संग्रह ]
पृ-5
ध्रर्मग्रंथों पर लगाकर खून के धब्बे ,
लोग पण्डित हो रहे हैं एकता के नाम पर।
-गिरीश गौरव,‘इतिहास
घायल है’ [तेवरी-संग्रह ] पृ-34
वे क्या जानें जनहित यारो,
नरसंहार ध्रर्म है उनका।
लड़वाते हैं हिंदू-मुस्लिम,
रक्ताहार ध्रर्म है उनका।
-अरुण लहरी, ‘अभी
जुबां कटी नहीं’ [तेवरी-संग्रह ] पृ-10
बेच दी जिन शातिरों ने लाश तक ईमान की,
ढूंढते हैं आप उन में शक़्ल क्यों इंसान की।
लूटना मजहब बना हो जिन लुटेरों के लिए,
ओढ़ते हैं वे यकीनन सूरतें भगवान की।
-दर्शन बेजार,‘ एक प्रहारः लगातार’ [तेवरी-संग्रह
] पृ-46
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ‘ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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